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Aayina

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अस्क को अपने देख कर ,गुम हो गई थी मैं। आईना कहीं झूठा तो नही,सोच में पड़ गई थी मैं। खयाल आया कि ये अस्क मेरा है, है मेरी ही परछाई,हूँ ये मैं ही। अपने बदलाव को देख संभल गई थी मैं। न जाने कितने सावन बीत गए, उन झूलों की गिनती भी हो गई पुरानी। कितने ग्रीष्म ने मिलकर किये होंगें इतना काम, तब जा कर हुए होंगे मेरे केश स्वेत शाम। आज उस पल को सोच कर हस पड़ी थी मैं, सोच  कहती थी ये दौर है , इसे आना ही था एक बार, दिल का वो बच्चा इस हकीकत को झुठलाए बार बार। पाउडर लगा लिया ,लाली भी आ गई। केशों में फिर एक बार हिना भी समा गई। इस मन का क्या करूं ये तो है बावरा, बाहरी लीपा पोती से इसका न वास्ता। कितना समझाया इसको सोच अपनी सुधार लो, बचपन आया फिर जवानी तो लो अब बुढ़ापे का इस्तकबाल करो। हर मौसम आता है तो जाता भी तो है। उगता है जो सूरज ,तो डूब कर , चंद्रमा को लाता भी तो है। कहने के लिए ये बातें, समझने के लिए अच्छी थीं। दिल पे जो गुजरी थी, कसक फिर जो वो उठी थी। सोचा था फिर न वक्त बर्बाद करेंगे, खुश हम भी रहेंगें, औरों को भी रखेंगे। क्या खोया क्या पाया, गुणांक नही था करना, बीते दिनों की दुहाई न इसरार कोइ कर...