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Showing posts from November, 2021

छल

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    आज हमारे समाज मे बहुत सारी कुरीतियों और प्रथाओं का अंत हो चला है।हम ऊंच नीच का भेद भाव भी भूल चुके है। पर एक वर्ग ऐसा भी है जिसे कुदरत ने छला है,और हमें उनके साथ हुए धोके को उनका साथ देकर और उनका आत्मविश्वास बढा कर  उनका प्रोत्साहन  बढ़ाना है। # छल   छल किया कुदरत ने देखो,विधाता ने क्या खेल रचाया। पुरुष शरीर में स्त्री का मन,  और स्त्री की काया में पुरुष मन बसाया। छल करती कुदरत भी देखो, क्यों उसने ऐसे प्राणी बनाए । समाज के ठेकेदारों से जो जूझने हर पल , अपना अस्तित्व वह दाव पर लगाएं । पिता संग देखो पुत्र जब करता, श्रृंगार की बातें बतियाए, कत्थक बैली हो या कोई नृत्य की प्रेरणा वो पाए, पिता दुहाई देकर समाज की उसे पौरुष याद दिलाएं । छल तब भी होता , जब मां जनती है उसको ,ना पुत्र या पुत्री के लिंग में,  फिर खुशी कोई ,मिलती ना उसको समाज में हर उम्र में।  अपने अधिकार के लिए, जब वह लड़का , नपुंसक लिंग गाली की तरह है सुनता । छल तब भी होता   जब कुछ युवक  धार कर उसका वेश ,सब को ठग है जाते। लोग उनको देखकर फिर एक अछूत निगाह  से दूर...

सद्भाव

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  एक दीप जलाओ सद्भाव का,  परिपक्व होकर इस समाज से , अंधकार मिटाओ दुर्भाग्य का,  नाहीं दान -पुण्य, या ,उपवास -अन्नदान से , सद्भाव तो है कुरीतियों के सम्हार का , एक दीप जलाओ सद्भाव का।।  पुष्पा अपने पति प्रणय की  दसवीं पर अभी ठीक से रो भी ना पायी थी ,कि कुछ मर्यादित संस्कारों और नीतियों के आगे बढ़ाने वाले जिम्मेदार स्त्रियों ने आकर धमाका मचा दिया ,सभी शहर के प्रगतिशील और मॉडर्न औरतें होने का दावा करती थी, पर आज अगर मैं कहूं ,कि वे सभी मुझे, चार दशक पुराने रूढ़ीवादी महिलाएं लग रही थी ,तो गलत ना होगा।  हम "अनुपमा" देखते हैं "प्रतिज्ञा" देखते हैं और सोचते हैं कि ,'क्या बात है दुनिया बदल रही है ' पर हमारे अंदर की वह स्त्री जो रूढ़िवाद का मलबा संभाले हुए हैं ,उसे नहीं हटा सकते है।  पुष्पा को तो जैसे सांप सूंघ गया हो,वह रो रही थी । उसका दुख हर किसी के दुख से बड़ा था। उसको अपने दुख का इजहार करने के लिए, नाही सुहाग की निशानी यों का बलिदान देने की जरूरत थी ,नाहीं रंगों के त्याग करने की, पर इस जालिम समाज को कौन समझाए ,जिसे सिर्फ आंखों के आंसू और बाहरी वेश...