सद्भाव


  एक दीप जलाओ सद्भाव का,
 परिपक्व होकर इस समाज से ,
अंधकार मिटाओ दुर्भाग्य का,
 नाहीं दान -पुण्य, या ,उपवास -अन्नदान से ,
सद्भाव तो है कुरीतियों के सम्हार का ,
एक दीप जलाओ सद्भाव का।।

 पुष्पा अपने पति प्रणय की  दसवीं पर अभी ठीक से रो भी ना पायी थी ,कि कुछ मर्यादित संस्कारों और नीतियों के आगे बढ़ाने वाले जिम्मेदार स्त्रियों ने आकर धमाका मचा दिया ,सभी शहर के प्रगतिशील और मॉडर्न औरतें होने का दावा करती थी, पर आज अगर मैं कहूं ,कि वे सभी मुझे, चार दशक पुराने रूढ़ीवादी महिलाएं लग रही थी ,तो गलत ना होगा।
 हम "अनुपमा" देखते हैं "प्रतिज्ञा" देखते हैं और सोचते हैं कि ,'क्या बात है दुनिया बदल रही है ' पर हमारे अंदर की वह स्त्री जो रूढ़िवाद का मलबा संभाले हुए हैं ,उसे नहीं हटा सकते है।
 पुष्पा को तो जैसे सांप सूंघ गया हो,वह रो रही थी ।
उसका दुख हर किसी के दुख से बड़ा था। उसको अपने दुख का इजहार करने के लिए, नाही सुहाग की निशानीयों का बलिदान देने की जरूरत थी ,नाहीं रंगों के त्याग करने की, पर इस जालिम समाज को कौन समझाए ,जिसे सिर्फ आंखों के आंसू और बाहरी वेशभूषा ,से ही दुख का पता चलता है। कल तक पुष्पा के बगैर उसके घर का हर काम अधूरा था। टूथ पेस्ट से लेकर खाने का सामान और चादर -गिलाफ ,सभी उसी की देखरेख में थे ।इस दुख में भी सभी उससे ही  सामानों का पूछते थे।
सुघड घर को ,बिखेर कर रख दिया था सब ने ,फिर भी चाहते हैं ,कि वह रोती ही रहे ,
अनुज पुष्पा का 25 साल का बेटा था। छोटा था पर उम्र से पहले ही दुनियादारी की समझ थी ,उसने इतनी सी उम्र में बहुत कुछ देख लिया था।
 उन महान  रूढ़ीवादी  लोगों के सामने, वह चट्टान सा खड़ा हो गया ।उसने सबको अपने तर्कों से ,चुप ही नहीं कराया ,अपितु समझाया भी ,सच में ज्ञान लेने के लिए उम्र नहीं होती ।सभी औरतें शांत हुई, कुछ मुंह चिढ़ा रही थी ,कुछ झूठी सहमति दे रही थी , पुष्पा के बेटे ने अपने पिता के आगे दीप जलाया और ब्राह्मणों को आगे की पूजा के लिए कहा ।
पर मुझे लगा जैसे 
एक दीप सद्भाव का जल चुका है 
सद्भाव केवल दान धर्म या परोपकार से नहीं होता बल्कि सद्भाव हमारे समाज हमारे मन की कुरीतियों और अंधविश्वास के दहन से भी होता है ।
सती प्रथा का अंत   करके हम विधवा को अगर जीते जी नरक का एहसास दिलाए ,तो यह कैसा सद्भाव। आज के युग में जब स्त्री को ,अपने हर दुख से परे ,अपनी जिम्मेदारियों को निभाना पड़ता है , तो क्यों हम अपने पुराने रीति-रिवाजों के बंधन में उसे जकड़ कर रखना पसंद करते हैं ।
चलो एक प्रण लें ,एक दीप सद्भाव का जलाएं ,
इसमें घी हम कुरीतियों की जलाएं ,
और बाती कुप्रथाओं की पिरोए ,
चलो एक दीप सद्भाव का जलाए ।।लोमा।।

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