VEDANA

उस क्षण उस पल हुई वेदना ,मेरे अंतर्मन में। 

मानवता के भेष में हिंसक मानव,लगा व्याघ्र सा मेरे मन में ।

जब कभी मैं पूजी जाती ,गणेश मुख रूप में,

मुझे रश्क हो उठता था, मानव के उस रूप में। 

सोचा करती मैं भी देखो गर मानव हो जाती,

तो इस भव्य समाज में कितनी खुशियां पाती। 

उस पल मेरे अंतर्मन से,आवाज यही है आई,

क्रूर मानव से भली हूं मैं, जो गजरूप में आई। 

ललचा कर दिया जो मुझको खाने को फलाहार, मैं भी अपने कोख की मारी,खा गई पूरा अनन्नास

विस्फोट हुआ तब जिहवा में,मुख हुआ लहूलूहान

पर मेरी पीड़ा घातक थी,कोख में मेरे दुलारी थी। भूख प्यास से बिलख रही थी जो मेरे संग में

उसे बचाऊं पर कैसे बचाऊँ था यह मेरे मन में,

अग्नि वेदना और तड़प को शांत किया तब तरु में फिर मेरी दुलारी बोली मेरे मन में ।

मां क्यों इतनी दरिंदगी है इस मानव मन में।

मैं क्या कहती अश्रु बहाकर रोदी मन ही मन में। हुई वेदना संग खुशी भी मेरे इस मन में ,

नहीं प्रसवी मेरी दुलारी ,इस तरह के महफिल में। 

जब न छोड़ा संगी मानव , फिर गिनती मेरी निरीह प्राणी में।

कभी होती थी राज प्रतीक मैं, अब लुप्त हो रही विश्व में।

अंत समय में ,अश्रु नयन में,

चिंघारा मैने नाद ,मानवता की रक्षा करना तू

है मेरे गजराज ।।लोमा।।

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