Posts

Showing posts from April, 2023

लुप्त स्वप्न

 स्वच्छ हवा में खुली  गगन  में ,मां मैं सपने सजाऊं  कलकल बहती नदियों पर , बहती  हवा संग गाऊं।  ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर से ,जब यह पवन टकराए,  मां मैं भी इनकी वेग में पतंग अपनी उड़ाऊं।  प्राण स्तोत्र यह  ,जीवनदायिनी, मां क्यों है फिर यह प्रदूषित  कर छोटी-छोटी सावधानियां ,मैं क्यों नहीं इसे स्वच्छ बनाऊं  स्वच्छ हवा में खुली गगन में मां मैं सपने सजाऊं।  देखो कितनी सरल है मां इस प्रकृति का रूप। हमको देती जीवनदान हम पग रखती पूरा ध्यान। फिर भी देखो मां  भरते इसमें ज़हर हर रूप में इंसान। प्रगति  और विकासशीलता की होड़ में जब बढ़ता हर इंसान  क्रोधित करता इस प्रकृति को देखो, प्रगतिशील इंसान। बीमारियों को बुलावा दे रहा इंसान।  बे मौसम बरसात हो जाए, स्वच्छ हवा भी लुप्त हो जाए।  मानव के इस दुष्कर्म से देखो ,                         प्रकृति अपना मातृत्व भी भूलती जाए । मां कैसे फिर मैं बोलो, अपने सपने सजाऊं।   आज तो फिर भी कोशिश कर लूं ,      ...