लुप्त स्वप्न
स्वच्छ हवा में खुली गगन में ,मां मैं सपने सजाऊं
कलकल बहती नदियों पर , बहती हवा संग गाऊं।
ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर से ,जब यह पवन टकराए,
मां मैं भी इनकी वेग में पतंग अपनी उड़ाऊं।
प्राण स्तोत्र यह ,जीवनदायिनी, मां क्यों है फिर यह प्रदूषित
कर छोटी-छोटी सावधानियां ,मैं क्यों नहीं इसे स्वच्छ बनाऊं
स्वच्छ हवा में खुली गगन में मां मैं सपने सजाऊं।
देखो कितनी सरल है मां इस प्रकृति का रूप।
हमको देती जीवनदान हम पग रखती पूरा ध्यान।
फिर भी देखो मां भरते इसमें ज़हर हर रूप में इंसान।
प्रगति और विकासशीलता की होड़ में जब बढ़ता हर इंसान
क्रोधित करता इस प्रकृति को देखो, प्रगतिशील इंसान।
बीमारियों को बुलावा दे रहा इंसान।
बे मौसम बरसात हो जाए, स्वच्छ हवा भी लुप्त हो जाए।
मानव के इस दुष्कर्म से देखो ,
प्रकृति अपना मातृत्व भी भूलती जाए ।
मां कैसे फिर मैं बोलो, अपने सपने सजाऊं।
आज तो फिर भी कोशिश कर लूं ,
कैसे अगली पीढ़ी को इसके प्रकोप से बचाऊं।
लुप्त हो रहा है इसका सौंदर्य, देखो मां हो रही है प्रदूषित।
विकास शीलता की दौड़ में मानव ,रह जाए ना प्रकृति संपत्ति से वंचित।
सपने सबके खोते जाए, धरती हवा जब लुप्त हो जाए।
तुम ही बोलो फिर मैं भी मां, कैसे अपने सपने सजाऊं।
जब ना ,खुली हवा हो ,प्रदूषित जहां हो ,
मां कैसे मै पतंग उड़ाऊं कैसे मै सपने सजाऊँ।।
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