एक दिवस एक आस


वर्ष 1989 में  विश्वा हिन्दू परिषद द्वारा अयोध्या में विवादित स्थल के पास किए गए राम मंदिर शिलान्यास से भाजपा और हिंदू संगठनों
का उत्साह चरम पर था। 
इस उत्साह को भुनाने के लिए सितंबर 1990 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणीजी ने श्रीराम रथ यात्रा का आयोजन किया।

ये आइडिया भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन ने दिया था। मकसद देशभर में लोगों को अयोध्या मूवमेंट के बारे में जागरूक करना और जोड़ना था। इस रथ यात्रा को लोगों का जबरदस्त साथ मिला। इसके बाद राम मंदिर निर्माण के लिए पूरे देश में उठी लहर में दो वर्ष बाद 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा (बाबरी मस्जिद) गिरा दिया गया।

आज पूरे 28 सालों बाद देश का अधूरा काम पूरा होने की कगार पर है।शिलान्यास हो चुका है ।
नमो ने राम का घर  बनवा ही डाला ।
देश खुश है , नेता भी विजयी महसूस कर रहें हैं। 

हम जैसे बहुतों के लिए शायद वो तारिख 6 dec 1992 सिर्फ एक दिवस था।   
आज के दिन कुछ को राम जन्म भूमि, तो कुछ को सांप्रदायिक दंगों का  विचार आता होगा ,पर मुझे तो इन सबसे परे, अपनी उस दोस्त का खयाल आता है ,जो उन दंगों में बिछड़ी तो शायद चाह कर भी मिल न सकी ।
जाने कहाँ होगी  वह
उस रात ने तो उसकी ज़िन्दगी ही बदल दी थी ।
पता चला था हमें कि उसकी शादी कर दी गई थी और उसकी एक बेटी भी है।
और अंकल की मौत भी  दो एक साल बाद में हो गई थी।

बात उन दिनों की है जब हम कॉलेज में थीं।
मेरे कई मित्र नही  हुआ करते थे ।
पर जो थीं ,वो पक्की सहेलियाँ थीं। 
शालू मिनी फौज़िया और मैं,हम चारों पक्की सहेलियां थी ।फौज़िया जो कि  हमारे ग्रुप में बाद में शामिल हुई थी,पर  फिर भी सबकी चहेती बन गयी थी।
हम एक साथ बस में BHEL BHOPAL से कॉलेज जो कि, छोटा तालाब से लग कर था,साथ ही आते थे।
बड़े प्यारे दिन थे ।कॉलेज ,सहर्लियाँ,पढ़ाई , और घर बस शायद तब खुश रहने के यही ज़रूरात थे।
दिसंबर का महीना था, भोपाल में सर्दियों का अपना अलग ही मज़ा  होता था ।मोटे -मोटे स्वेटर,रज़ाइयों में घुसकर पढ़ना ,और tv देखना दिन भर ठिठुर कर  ठंड के मज़े लेना ।
ऐसे में कॉलेज की भी छुट्टी होती थी।
माँ पापा किसी काम से हैदराबाद गए थे ।
मैं और मेरी बहन  ढेर सारे हिदायतों संग ,घर पर ही थे।
हम लोगों का BHEL बहुत  ही सेफ हुआ करता था, सब मिलजुल कर एक परिवार की तरह रहते थे। और हम दोनों  एक दूसरे के लिए काफी थे ।दिन भर हस्ते खाते मगन थे ।तब सेल फ़ोन्स का चलन नही था  ,और तभी लोगों में प्यार बहुत ज़्यादा था।हम अपना समय खुद जीते थे।आज के बच्चों की तरह अपने समय को सेल फ़ोन और सोशल मीडिया की कठपुतली नही बनाते थे।
खैर , माँ पापा तो सिर्फ  7 दिन के लिए गए थे।
वो तीन दिन बाद लौटने वाले थे। उस दिन हम दोनों बहिनें बालकनी में बैठी बतियाँ रहीं थी,
 अभी इतना अंधेरा भी नही हुआ था,शायद रात के सात या  साढ़े सात बजे होंगे। 
हमने देखा दूर पर  बहुत ही धुआँ  उठ रहा था और बहुत बदबू भी आ रही थी  और बहुत ही   शोर सुनाई दे रहा था। पता तो था देश मे क्या चल रहा है।
 पर अपनी सोच में  किसी अपने के लिए  बुरा होने का खयाल भी नही आया ।बस चिंता थी तो माँ पापा के सही सलामत वापस  आनेकी ।
हम दोनो बहनों ने सोचा शायद ठंड से बचने के लिए किसी मज़दूर ने टायर और कचरा जलाया होगा। 
मा पापा भी आगए और छुट्टियां भी खत्म हो गई। अब ज़िन्दगी फिर अपने   पटरी पर चल पड़ी । 
हमारी बस कॉलेज के लिए निकल पड़ी । पहला स्टॉप मेरा था फिर फौज़िया का और फिर मिनी का ।
जैसे ही बस फौज़िया के स्टॉप पर पहुंची ,जो कि उसके घर के ठीक सामने ही था ,मुझे लगा मानो,
मेरा दिल फ़ट पड़ेगा,कुछ समझ नही आया , घर मे बस से ही अंदर झांकने की कोशिश की ,सिर्फ स्याह दीवारें ही नज़र आयीं।जो घर फूलों की क्यारियों से सजा रहता था आंगन में  पलंग पर पापड़  और बड़ियां सूखती थी आज उस पलंग की राख  भर थी।
पता चला कि दंगों में किसी ने उनका घर भी जला डाला वे सब कहाँ थे अभी पता नही चल पाया था।
6 दिसंबर की उस रात की वजह से फौज़िया के ज़िन्दगी में न जाने कितने बदलाव आए ,उसकी पढ़ाई छूट गई,हम से मुलाकातें खत्म हुई ।मैने कई बार मिलना चाहा पर मुलाकात न हो सकी।। फिर पता चला कि उसकी शादी हो गई ।और वे लोग अब इंदौर में रहते थे।
दिलों में दूरियां तो नही पर एक अनजानी अनचाही एक सीमा खीच गई थी।जहाँ सारा बचपन बेखोफ किसी के भी घर चले जाया करते थे।
वहीं पर अब बड़ों की अनकही ज़ुबान और बोलती आंखें कइयों के घर जाने से रोकने लगी ।
पता नही राम को अपना मंदिर चाहिए था ,या  बाबर को मज़्ज़िद पर घर तो कई अपनों ने खोया था ,चाहे वो  अल्लाह के बंदे हो या राम के भक्त।
एक हफ्ते से ज़्यादा चली इस लड़ाई ने पूरे देश को तो झुलस ही दिया था पर मेरे शहर भोपाल को जैसे शापित कर दिया था। हिन्दुओं ने  अपना प्रकोप दिखाया तो मुसलमानों ने अपना ।राजनीतिक चाल या धार्मिक गतिविधि पता नही क्या था ये सब ,पर मैने तो अपनी सहेली खो दी ।
नजाने कितने ही सालों से मैं इस दिन उसीको याद करतीं हूँ,और शायद वो भी अपने तरीके से हमें याद करती होगी।
क्या हम  लोग कभी भी मिल कर नही रह सकते।
पापा बताते थे कैसे वो अपने दोस्तों के घर ईद पर सेवैएं खाने जाते थे और कैसे वो लोग हमारे घर होली पर रंग लगाने आते थे । क्या एक मुल्क में एक साथ रहना इतना मुश्किल है ।
हम आज़ाद हो चुके हैं पर देश की आज़ादी के बाद भी ,शायद हमारा  अस्तित्व गुलाम ही है पहले अंग्रेज़ राज़ करते थे ।पर अब हम पर हमारी राजनीतिक संघटन राज़ करते हैं, धार्मिक मतभेद अपनी सत्ता जमाये हैं।
विदेशी और पड़ोसी राज्यों की भेदनीति अब हमारे भाईचारे पर भारी पड़ती है ।
शायद हम सच्चे नागरिक तभी कहलाये जब हमारे दिलों में बेखोफ मिलकर रहने की आस हो।
देश अपना लोग अपने फिर क्यों है भेद भाव।
मिलजुल कर रेहने को ,क्यों नही हम तैयार।
 जातिवाद का राज़ है धर्म के नाम पर भेदभाव।
क्यों छोड़ नही सकते धर्म जाती का जाप,
रहते एक ही मुल्क में,फिर क्यों भेद भाव का राज।
आग लगाये पडोसी तो क्यों करें हम घी का काम।
साथ रहते हुए हम क्यों बनाये अलग अलग संसार।
क्यों खीच जातीं तलवारें ,तीर और कमान,
क्या नही कर सकते इबादत भगवान की 
और प्रार्थना  अल्लाह की एक समान।
एक वतन है ,एक है जीवन ,एक ही लहू का रंग।
चलो जोड़ें भारत को फिर एक बार मिलकर संग।।लोमा।।




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