गुरुर

                                                   PC:ekcupt
जब खुद को पाया रिश्तों के मोहपाश में ,

समझाया  फिर खुद को ,

अभिमान और स्वाभिमान का जोड़।

पर जब बनी माँ तो समझी ,

आत्मा सम्मान और  प्रेम का जोड़।

मातृता की मैं हारी ,जोड़   गणित न समझ पाती,

उस वक्त मुझ को मेरी माँ की स्तिथि बखूभी समझ आती।

कितनी दफा खुद को हारी,
मैं को भी हरी।

मुझको जीताने के खातिर , वह तो अपना सब कूछ हारी।

मेरी जीत ही उसकी कल्पना ,मुझ पर ही वो न्यारी व्यरी।

गुरुर बना उसने मुझको ,अपने स्वाभिमान तक को हरी।

कई दफा तराजों में जब तोला मैने आत्मसम्मान को

रखा पलड़ा हमेशा भारी मातृत्व  भार को।

बड़ी स्वमलम्बी मैं समझती थी ,अपने आप को,

स्वाभिमानी भी थी पर जब तक न समझ पाई थी माँ को।

मोह नही मेरा गुरुर है ये तो मेरे बच्चे।

इनको देखो मैं समझाती जीवन के चट्टे बट्टे।

बड़ा फ़रख होता है अक्सर स्वाभिमान और अभिमान में।

जीवन के गुर इस गुर को जो समझ पाया,

सुलझ जाए हर मुश्किलात में।।लोमा।।

Comments

Popular posts from this blog

सनातन

गुमनाम मत

करोना मे दोस्ती