गुमनाम मत

देखो, देखो दिन ढल गया,
मतदाताओं के अधिकार की अब शाम हुई।
आधा-अधूरा देखो, मतदान भी अब विराम हुई।
किस्मत देखो लोगों की, ५ साल के लिए बंधक हुई।
कौन जीतेगा, कौन विपक्ष संभालेगा,
किसका राज आम आदमी को रास आएगा।
नतीजा अभी बाकी है, स्याही चुनाव चिन्ह की भी अभी बहुत बाकी है।
ना अंकित कर पाए अपने उंगली में चुनाव चिन्ह, देखो, कितने का अधिकार अभी बाकी है।

बेचारे मतदाता फंसे कई नौकरी के बोझ में,
घंटा-दो घंटे के ब्रेक के झोल में।
न गए वो, न लेजा सके घरवालों को बूथ में,
कई घरों की बनी कहानी यही, अनचाही हुई।
ऑफिस में है ताले पर ,घर से दफ्तर की हाजरी अनिवार्य हुई।
देखो गणना में कैसे  यह घोटाला,  अनजानी सी हुई,
कहीं तो मत नौकरी के चलते,
तो कहीं अलग राज्य में रहते, अधिकारों की आहुति हुई।
इक-दो नहीं, हजारों की यही दुखद कहानी हुई,
चाह कर भी न सरकार फिर, ना मनचाही हुई।
गुमनाम मतों की देखो हर बार की वही कहानी हुई।
देखो फिर दिन ढल गया, रात अब स्याह हुई,
फिर पांच साल की कहानी देखो वही पुरानी हुई।।।।

इस आधुनिक युग में,
जब हर काम उंगलियों पर होता है, लाखों-करोड़ों का लेनदेन इक छह इंच के डब्बे यानी मोबाइल से भी हो सकता है।
वहां न जाने क्यों, आज भी मतदाता अपना कीमती मतदान देने से चूक जाते हैं।
बात आज की नहीं है, पिछले कई चुनावों में यही तकलीफ मतदाताओं ने झेली थी।
जागरूक नागरिक होते हुए भी, अपने काम और कई बार आर्थिक या समय के अभाव में वे मतदान देने नहीं पहुंच पाते थे।
पर दिल में एक आशा बनी रहती थी – अगली बार शायद हम डिजिटली मतदान कर पाएंगे।
पाँच साल का इंतजार फिर शुरू हो जाता है और हर बार की तरह अगली बार पर
उम्मीद का दिया जलाते हैं।
आशा है अगली बार हजारों  लाखों मतों को हमारी सरकार यों जाया नहीं जाने देंगी।।। लोमा।।

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